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एक महान दार्शनिक-आदिगुरु शंकराचार्य || टिंडित इंडिया ||

लेखक - अंकित बरनवाल



आदि शंकराचार्य भारत के महान हिंदू दार्शनिक थे इनका जन्म आज से 2500 वर्ष पहले माना जाता है इनका जन्म केरल के कालड़ी नामक ग्राम में हुआ था इनके ब्राह्मण माता-पिता के लिए एकमात्र संतान थे यह एक धर्म प्रवर्तक भी थे |यह महज 6 वर्ष की आयु में एक प्रकांड पंडित हो चुके थे और और 8 वर्ष की उम्र में इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था इनके पिता का नाम शिव गुरु भक्त और माता का नाम सुभद्रा था महज 3 वर्ष की आयु में इनके पिताजी का देहांत हो गया|

 जब इन्होंने संन्यास लेने के लिए अपनी माता जी से आज्ञा मांगी तब इनकी माता जी ने मना कर दिया था तब एक दिन नदी के किनारे एक मगरमच्छ ने इनका पांव पकड़ लिया तब इन्होंने इस मौके का फायदा उठाते हुए अपनी मां से कहा कि तुम मुझे सन्यासी बनने आज्ञा नहीं दी तो यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा अंत तक इनकी माताजी को इन्हें आज्ञा देनी पड़ी और आश्चर्य की बात यह है कि मगरमच्छ ने उनका पांव छोड़ भी दिया सन्यासी बनने हेतु उन्होंने गुरु की खोज में ब्राह्मण करना शुरू कर दिया और अंततः जाकर आचार्य गोविन्द भगवत्पाद से सन्यास ग्रहण किया |

आदि शंकराचार्य जी में चार पीठ को भारत के चार दिशाओं में स्थापित किए उत्तर दिशा में ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, पश्चिम में द्वारिका शारदा पीठ, दक्षिण में श्रृंगेरी पीठ और पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी गोवर्धन पीठ|

 इनका बचपन का नाम शंकर था इन्हें आचार्य की उपाधि काशी में मिली जहां इन्होंने काशी में शिक्षा दी आचार्य के रूप में काशी में कुछ साल व्यतीत करने के बाद इन्होंने इन्होंने काशी छोड़ने का निर्णय लिया और देश भर में भ्रमण करके कई विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित भी किया इन्हें पराजित करने के पीछे उनका अहंकार नहीं था बल्कि उस समय के विभिन्न धर्मों को एक करने के पीछे उनके प्रयास थे |

 


शिष्यों के मध्य आदिगुरु शंकराचार्य, राजा रवि वर्मा द्वारा (1904) में चित्रित

इन्होंने इन्होंने उस समय के मिथिला के  विद्वान मंडन मिश्र और उनकी पत्नी उभय भारती  को शास्त्रार्थ में पराजित किया मंडल मिश्र कितने बड़े विद्वान थे इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनका पालतू तोता भी संस्कृत में श्लोक बोलता था मंडन मिश्र को अंततः पराजित होने के बाद सन्यास धारण करना पड़ा और वे शंकराचार्य जी के शिष्य भी बने और पूरे समस्त भारतवर्ष में इन्होंने भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया और वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार किया उन्होंने कई विद्वानों और बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की|  महज 32 वर्ष की आयु में ही इनका स्वर्गवास केदारनाथ के समीप हो गया|

आदि शंकराचार्य जी ने बहुत से ग्रंथों की रचना की  जो की अद्वैत वेदांत के आधार पर ही हैं इसमें से मुख्यता है -मुंडकोपनिषद भाष्य, विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र भाष्य, ब्रह्मसूत्र भाष्य, भगवद्गीता भाष्य इत्यादि हैं |


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